Friday, July 9, 2010

शांति की पहचान

अभी हमने जिस शांति की पहचान करने को कहा है उसके बारे में थोड़ी और चर्चा करेंगे ताकि ज़रा भी संशय न रहे अपने पुरुषार्थ की दिशा decide करने में.

Wednesday, July 7, 2010

धर्म का प्रयोजन

अभी हम यह देखेंगे की इस धर्म की हमारे जीवन में क्या आवश्यकता है-

असल में इस धर्मं की हमे कोई आवश्यकता नहीं होती अगर हमारी सभी इछाये व अभिलाषाएं पूरी हो गयी होती। कोई भी कार्य बिना अभिलाषा के नहीं किया जाता। नहीं यकीन होता तो थोड़ी गहराई से सोच कर देखिये जवाब मिल जायेगा। हम कोई भी काम किसी न किसी कारण से ही करते हैं। हम सभी अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में लगे हैं और उसका एक मात्र कारण है संतुष्टि या शांति। आवश्यकता अविष्कार की जननी है और इसी शांति की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हमारे गुरुओं ने धर्मं का अविष्कार किया अपने जीवन के लिए और उसका उपदेश दिया सभी के कल्याण के लिए ताकि हम भी उस शांति को पा सके।

तो अभी ये प्रश्न होता है की क्या हम कुछ पुरुषार्थ कर रहे हैं की नहीं। हम भी धन कमाना व  भोग की वस्तुए इकठी करने का पुरुषार्थ कर रहे हैं ताकि संतुष्टि/शांति  पा सके, पर क्या शांति मिली इतना सब करने के बाद भी, नहीं न  तो हमे उसके लिए थोडा सोचना होगा की हमारा पुरुषार्थ कहाँ गलत हो रहा है। अपने पुरुषार्थ को सही जगह लगाना होगा। Trial and error method से असली शाश्वत शांति को खोजना होगा जो कभी मिलने के बाद चली न जाए।  यहाँ Trial and error method का क्या मतलब है?  क्या आप शांति को पहचानते हैं. यदि पहचानते तो पुरुषार्थ गलत नहीं होता.  असल में जहाँ व्याकुलता नहीं है वही शांति है.  लेकिन क्या कभी पैसा कमाने के बाद या अछि से अछि भोग सामग्री के पाने के बाद "और चाहिए" की आवाज़ बंद होती है यदि नहीं तो इसका मतलब है इस तरह के पुरुषार्थ की दिशा बदलनी होगी और तब तक बदलते रहना होगा जब तक "बस यही " की ध्वनि न सुने दे.  जिस दिन अन्दर से आवाज़ आयेगे "बस यही" समझना शांति मिल गयी.  यही इसका Trial and error method है.

Thursday, May 6, 2010

अध्यन पद्दति

(पूज्य जिनेन्द्र वर्णी जी )
शांति की ओर पहला कदम


आज इस समय में जहाँ सभी और पैसा कमाने की होड़ लगी है धर्मं शब्द भी फालतू की बात लगती है. समय व्यर्थ करने का topic. धर्म को लेकर हमारे मन में कैसी picture उभरती है:
•1. बूढ़े लोगों का काम
•2. मंदिर जाना/ पूजा करना (सिर्फ इसलिए की परिवार की परंपरा है )
•3. प्रवचन सुनना
•4. विवाद का topic क्योंकि सभी अपने धर्मं ( मंदिर/मस्जिद/गुरुद्वारा/ चुर्च) को ही अच्छा मानते है.

लेकिन यकीन मानिये ... धर्म कोई बाहरी क्रिया नहीं जो किसी के कहने पर की जाये .... थोड़ी सी रूडियें अपना लेने को ही हमने धर्मं मान लिया है जो साम्प्रदायिकता के आलावा कुछ नहीं है
अभी ये प्रश्न मन में आएगा की ये कैसे हो सकता है, कैसी बात कर रहे हैं, अगर ये धर्म नहीं तो फिर धर्म क्या है। ऐसी जिज्ञासा होना ही बड़ी बात है और वही हमे आगे बदने के लिए प्रेरित करती है.

इससे पहले के हम धर्म के बारे में जाने, क्या अपने कभी सोचा है के ये धर्मं की बात सुनने की रूचि या जानने की उत्सुकता किसी की कम या जयादा क्यों होती हैं.
इसके कई कारण हैं और वे सब दूर हो जाये तो ऐसा नहीं हो सकता की समझ में न आये :
1. धर्म को फ़ोकट की वस्तु समझना -
यही हम धर्म को फ़ोकट की वस्तु न समझ कर वास्तव में कुछ हित की समझे और कानों में शब्द पड़ जाने मात्र से संतुष्ट न होकर वक्ता के या शास्त्रों के अभिप्राय ( कहने का कारण ) को समझने का प्रयत्न करें तो धर्मं की वास्तविकता जरूर से समझ में आएगी. " शब्द सुने जा सकते हैं अभिप्राय नहीं "
2. वक्ता (बताने वाला) की अप्रमाणिकता -
अगर बोलने वाले ने स्वयं धर्मं का सही स्वरुप न समझा हो और जो उसके खुद के जीवन से न झलकता हो तो समझो वो बोलने वाला स्वयं सिर्फ शब्दों को आप तक पहुंचा रहा है उसका अभिप्राय आप तक नहीं पहुच सकता क्योंकि वो सिर्फ अनुभव करा जा सकता है. आप खुद पहचान कर सकते हैं:
-जिसका जीवन सरल, शांत व दयापूर्ण हो,
- जिसके शब्दों में माधुर्य हो, करुणा हो और जिसके शब्दों में पक्षपात की बू न आती हो,
-जो हठी न हो,
-संप्रदाय के आधार पर सत्यता को सिद्ध करने का प्रयत्न न करता हो,
-वाद विवाद रूप चर्चा करने से डरता हो,
-आपके प्रश्नों को शांति से सुनने की क्षमता हो और उसे कोमलता से समझाने का प्रयत्न करता हो, आपकी बात सुन कर जिसे irritation न होता हो,
-जिसके मुख पर हमेशा मुस्कान रहती हो,
-विषय भोगो से जिसे उदासी हो, और त्याग करने से जिसे संतोष होता हो,
-अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न और अपनी निंदा सुनकर रुष्ट (angry ) न हो

3. सुनने वाले के दोष - उतावली करना, कमियां देखना आदि
4. विवेचन (analysis ) में अक्रमिकता - कही गयी बात को उसी क्रम में नहीं समझना
5. पक्षपात रखना - अगर शुरू में ही धर्मं को सांप्रदायिक रूप में मान लो तो कुछ और नया समझ नहीं आता

अगर ये पांच कारणों का आभाव हो जाये तो ऐसा नहीं हो सकता के तुम धर्मं के प्रयोजन को व उसकी महिमा को ठीक ठीक जान न पो और जानकार उससे इस जीवन में कुछ नया परिवर्तन लाकर इसके मीठे फल को प्राप्त न कर लो; और अपनी पहले की गयी धार्मिक क्रियाओं के रहस्य को समझ कर उन्हें सार्थक न बना लो.
अभी हम आगे देखंगे की धर्म की हमारे जीवन में आवश्यकता ही क्या है? हमे नहीं लगता के ये हमारे दिन प्रतिदिन के कार्यों के लिए आवश्यक है. हमारा जीवन तो बिना किसी धार्मिक क्रिया को करके भी अच्छे से चल रहा है तो फिर हमे philospher बनने की क्या जरूरत है? प्रश्न बहुत सही है और होना भी चाहिए. मनुष्य में सोच विचार की क्षमता है यही तो उसकी खूबी है और उसके इस्तेमाल सही दिशा में हो तो कहने ही क्या........